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कीट प्रबंधन

जानिए कीट नियंत्रण और कीट प्रबंधन में क्या-क्या अंतर होते हैं

जानिए कीट नियंत्रण और कीट प्रबंधन में क्या-क्या अंतर होते हैं

आपकी जानकारी के लिए बतादें कि कीट नियंत्रण एक उपचार है। लेकिन कीट प्रबंधन कीट संक्रमण से पूर्व ही किया जा सकता है। इस लेख में हमने कीट नियंत्रण एवं कीट प्रबंधन के मध्य अंतराल को विस्तृत रूप से बताया है। खेती-बाड़ी में आम तौर पर दो शब्द कीट नियंत्रण एवं कीट प्रबंधन सुनने को मिलता है। परंतु, क्या आपको पता है, कि इन दोनों में कोई खास ज्यादा अंतर नहीं होता है। कीट से जुड़े इन दोनों ही शब्दों का अर्थ काफी बड़ा होता है। क्योंकि इनके इस्तेमाल से आपकी फसल एवं कृषि क्षेत्र पर भी इसका असर पड़ता है। अब ऐसी स्थिति में हम आपके लिए इन दोनों में अंतराल समेत इनके महत्व के संदर्भ में जानकारी देने वाले हैं।

कीट नियंत्रण क्या होता है

कीट नियंत्रण कीट में शामिल किस्मों का प्रबंधन है। यह खेत में उपस्थित अवांछित कीड़ों को कम करने, प्रबंधित करने और नियंत्रित करने व हटाने की प्रक्रिया है। कीट नियंत्रण के दृष्टिकोण में एकीकृत कीट प्रबंधन (आईपीएम) शम्मिलित हो सकता है। खेती किसानी में कीटों को सांस्कृतिक, जैविक, रासायनिक और यांत्रिक तरीकों से संरक्षण किया जाता है। बिजाई से पूर्व खेत की जुताई एवं मिट्टी की जुताई करने से कीटों का भार घटता है। वहीं, फसल चक्रण से निरंतर होने वाले कीट प्रकोप को कम करने में काफी सहयोग मिलता है। कीट नियंत्रण तकनीक में फसलों का निरीक्षण, कीटनाशकों का इस्तेमाल एवं सफाई जैसी विभिन्न चीजें शम्मिलित हैं।

आखिर कीट नियंत्रण का महत्व क्या होता है

मानव स्वास्थ्य का संरक्षण: यह मच्छरों, टिक्स एवं कृन्तकों जैसे कीटों द्वारा होने वाली बीमारियों के प्रकोप को कम कर मानव स्वास्थ्य की रक्षा करने में सहयोग करता है। संपत्ति का संरक्षण: कीटों को नियंत्रित करके फसलों, संरचनाओं एवं संग्रहीत उत्पादों को क्षति से बचाता है। संपत्ति को संक्रमण से जुड़े विनाश से बचाता है। खाद्य सुरक्षा: कृषि प्रणाली में फसल पैदावार को बनाए रखना एवं भोजन की सुरक्षा और गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए कीट नियंत्रण उपाय जरूरी है। आर्थिक प्रभाव: प्रभावी कीट नियंत्रण क्षतिग्रस्त फसलों एवं संपत्ति के नुकसान की वजह से होने वाली वित्तीय हानियों को रोक सकता है।

कीट प्रबंधन होता क्या है

कीट प्रबंधन को अवांछित कीटों का खात्मा करने एवं हटाने की एक विधि के तौर पर परिभाषित किया गया है, जिसमें रासायनिक उपचारों का इस्तेमाल शम्मिलित हो सकता है अथवा नहीं भी हो सकता है। प्रभावी कीट प्रबंधन का उद्देश्य कीटों की तादात को एक सीमा तक कम करना है।

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कीट प्रबंधन का महत्व क्या होता है

रसायनों पर कम निर्भरता: यह जैविक नियंत्रण एवं सांस्कृतिक प्रथाओं जैसे वैकल्पिक तरीकों के इस्तेमाल पर बल देता है। रासायनिक कीटनाशकों पर निर्भरता को कम करने के साथ उनके संभावित नकारात्मक प्रभावों को भी कम करता है। पर्यावरणीय स्थिरता: कीट प्रबंधन पारिस्थितिक संतुलन बरकरार रखने एवं स्थिरता को प्रोत्साहन देने की कोशिश करता है। एकीकृत कीट प्रबंधन: कीट प्रबंधन में निगरानी, ​​निवारक उपाय एवं जरूरत पड़ने पर कीटनाशकों का लक्षित इस्तेमाल शम्मिलित है, जिससे ज्यादा प्रभावशाली एवं टिकाऊ कीट नियंत्रण होता है। दीर्घकालिक रोकथाम: कीट प्रबंधन का उद्देश्य कीट संबंधित परेशानियों की मूल वजहों को दूर करना है। साथ ही, आने वाले समय में होने वाले संक्रमण को न्यूनतम करने के लिए निवारक उपायों को इस्तेमाल करना है, जिससे निरंतर एवं गहन कीट नियंत्रण उपचार की जरूरतें कम हो जाती हैं।

कीट नियंत्रण और कीट प्रबंधन में फर्क बताने हेतु निम्नलिखित बिंदु

लक्ष्य के आधार पर अंतर

कीट नियंत्रण- कई सारे तरीकों से कीटों का खत्मा करना अथवा नियंत्रित करना कीट प्रबंधन- पर्यावरण एवं मानव स्वास्थ्य को होने वाली हानि को कम करते हुए अथवा उनकों ध्यान में रखते हुए कीटों की रोकथाम करना

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दृष्टिकोण के आधार पर अंतर

कीट नियंत्रण- कीटों के तत्काल उन्मूलन पर ध्यान केंद्रित करना कीट प्रबंधन- लम्बे समय तक नियंत्रण एवं रोकथाम रणनीतियों पर बल देना

तरीकों के आधार पर अंतर

कीट नियंत्रण- कीटनाशकों पर काफी ज्यादा निर्भरता कीट प्रबंधन- जैविक नियंत्रण, सांस्कृतिक प्रथाओं एवं रासायनिक नियंत्रण समेत कई सारी तकनीकों का उपयोग करना

दायरे के आधार पर अंतर

कीट नियंत्रण- विशेष रूप से वर्तमान में कीट संक्रमणों को कम करना अथवा उनका खत्मा करना कीट प्रबंधन- वर्तमान संक्रमण एवं भावी संभावित खतरों दोनों का खत्मा अथवा कम करना।

वहनीयता के आधार पर अंतर

कीट नियंत्रण- पर्यावरण एवं गैर-लक्षित किस्मों पर नकारात्मक असर पड़ सकता है। कीट प्रबंधन- पारिस्थितिक संतुलन बरकरार रखने एवं स्थिरता को प्रोत्साहन देने की कोशिश करता है।

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एकीकृत कीट प्रबंधन (आईपीएम) के आधार पर अंतर

कीट नियंत्रण- स्वाभाविक रूप से एक आईपीएम दृष्टिकोण नहीं है। कीट प्रबंधन- आम तौर पर सभी उपलब्ध कीट प्रबंधन तकनीकों पर विचार करते हुए आईपीएम के सिद्धांतों का पालन करता है।

पारिस्थितिकी तंत्र के आधार पर अंतर

कीट नियंत्रण- समस्त पारिस्थितिकी तंत्र के लिए कम विचार कीट प्रबंधन- पारिस्थितिक संदर्भ एवं पारिस्थितिकी तंत्र पर कीट प्रबंधन क्रियाओं के प्रभाव पर विचार करना

निगरानी के आधार पर अंतर

कीट नियंत्रण- सीमित निगरानी या कुछ निगरानी प्रणाली पर ध्यान कीट प्रबंधन- कीटों का पता लगाने और प्रबंधन रणनीतियों की प्रभावशीलता का आकलन करने के लिए निरंतर निगरानी और नियमित निरीक्षण पर निर्भरता।
येलो मोजेक वायरस की वजह से महाराष्ट्र में पपीते की खेती को भारी नुकसान

येलो मोजेक वायरस की वजह से महाराष्ट्र में पपीते की खेती को भारी नुकसान

आपकी जानकारी के लिए बतादें कि नंदुरबार जिला महाराष्ट्र का सबसे बड़ा पपीता उत्पादक जिला माना जाता है। यहां लगभग 3000 हेक्टेयर से ज्यादा रकबे में पपीते के बाग इस वायरस की चपेट में हैं। इसकी वजह से किसानों का परिश्रम और लाखों रुपये की लागत बर्बाद हो गई है। किसानों ने सरकार से मांगा मुआवजा। सोयाबीन की खेती को बर्बाद करने के पश्चात फिलहाल येलो मोजेक वायरस का प्रकोप पपीते की खेती पर देखने को मिल रहा है। इसकी वजह से पपीता की खेती करने वाले किसान काफी संकट में हैं। इस वायरस ने एकमात्र नंदुरबार जनपद में 3 हजार हेक्टेयर से ज्यादा रकबे में पपीते के बागों को प्रभावित किया है, इससे किसानों की मेहनत और लाखों रुपये की लागत बर्बाद हो चुकी है। महाराष्ट्र के विभिन्न जिलों में देखा जा रहा है, कि मोजेक वायरस ने सोयाबीन के बाद पपीते की फसल को बर्बाद किया है, जिनमें नंदुरबार जिला भी शामिल है। जिले में पपीते के काफी बगीचे मोजेक वायरस की वजह से नष्ट होने के कगार पर हैं।

सरकार ने मोजेक वायरस से क्षतिग्रस्त सोयाबीन किसानों की मदद की थी

बतादें, कि जिस प्रकार राज्य सरकार ने मोजेक वायरस की वजह से सोयाबीन किसानों को हुए नुकसान के लिए सहायता देने का वादा किया था। वर्तमान में उसी प्रकार पपीता किसानों को भी सरकार से सहयोग की आशा है। महाराष्ट्र एक प्रमुख फल उत्पादक राज्य है। परंतु, उसकी खेती करने वालों की समस्याएं कम होने का नाम ही नहीं ले रही हैं। इस वर्ष किसानों को अंगूर का कोई खास भाव नहीं मिला है। बांग्लादेश की नीतियों की वजह से एक्सपोर्ट प्रभावित होने से संतरे की कीमत गिर गई है। अब पपीते पर प्रकृति की मार पड़ रही है।

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पपीते की खेती में कौन-सी समस्या सामने आई है

पपीते पर लगने वाले विषाणुजनित रोगों की वजह से उसके पेड़ों की पत्तियां शीघ्र गिर जाती हैं। शीर्ष पर पत्तियां सिकुड़ जाती हैं, इस वजह से फल धूप से क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। व्यापारी ऐसे फलों को नहीं खरीदने से इंकार कर देते हैं, जिले में 3000 हेक्टेयर से ज्यादा क्षेत्रफल में पपीता इस मोज़ेक वायरस से अत्यधिक प्रभावित पाया गया है। हालांकि, किसानों द्वारा इस पर नियंत्रण पाने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के उपाय किए जा रहे हैं। परंतु, पपीते पर संकट दूर होता नहीं दिख रहा है। इसलिए किसानों की मांग है, कि जिले को सूखा घोषित कर सभी किसानों को तत्काल मदद देने की घोषणा की जाए।

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पपीता पर रिसर्च सेंटर स्थापना की आवश्यकता

नंदुरबार जिला महाराष्ट्र का सबसे बड़ा पपीता उत्पादक जिला माना जाता है। प्रत्येक वर्ष पपीते की फसल विभिन्न बीमारियों से प्रभावित होती है। परंतु, पपीते पर शोध करने के लिए राज्य में कोई पपीता अनुसंधान केंद्र नहीं है। इस वजह से केंद्र और राज्य सरकारों के लिए यह जरूरी है, कि वे नंदुरबार में पपीता अनुसंधान केंद्र शुरू करें और पपीते को प्रभावित करने वाली विभिन्न बीमारियों पर शोध करके उस पर नियंत्रण करें, जिससे किसानों की मेहनत बेकार न जाए।

येलो मोजेक रोग के क्या-क्या लक्षण हैं

येलो मोजेक रोग मुख्य तौर पर सोयाबीन में लगता है। इसकी वजह से पत्तियों की मुख्य शिराओं के पास पीले धब्बे पड़ जाते हैं। ये पीले धब्बे बिखरे हुए अवस्था में दिखाई देते हैं। जैसे-जैसे पत्तियां बढ़ती हैं, उन पर भूरे रंग के धब्बे दिखाई देने लगते हैं। कभी-कभी भारी संक्रमण की वजह पत्तियां सिकुड़ और मुरझा जाती हैं। इसकी वजह से उत्पादन प्रभावित हो जाता है।

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येलो मोजेक रोग की रोकथाम का उपाय

कृषि विभाग ने येलो मोजेक रोग को पूरी तरह खत्म करने के लिए रोगग्रस्त पेड़ों को उखाड़कर जमीन में गाड़ने या नीला व पीला जाल लगाने का उपाय बताया है। इस रोग की वजह से उत्पादकता 30 से 90 प्रतिशत तक कम हो जाती है। इसके चलते कृषि विभाग ने किसानों से समय रहते सावधानी बरतने की अपील की है।